Gramya jeevan ki kahaniyan
Material type: TextPublication details: New Delhi Prabhat Prakashan 2004Description: 150 pISBN:- 8173151792
- 891.43
Item type | Current library | Call number | Status | Date due | Barcode | Item holds | |
---|---|---|---|---|---|---|---|
Book | Ahmedabad | 891.43 G7 (Browse shelf(Opens below)) | Available | 159580 |
Text in Hindi
हमारी लगभग अस्सी प्रतिशत जनता गाँवों में रहती है । शहर या कस्बे में रहनेवालों की अपेक्षा गाँव के लोग अधिक परिश्रमी होते हैं । देश की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पैदावार बढ़ाने में वे रात-दिन लगे रहते हैं । इनमें ऐसे बहुत कम हैं जो भूमि के एक छोटे से टुकड़े के भी स्वामी हों । अधिकांश को तो खेतिहर मजदूर के नाम से ही जाना जाता है । मुट्ठी भर लोग ऐसे हैं जो पहले कभी बड़े जमींदार-जागीरदार थे । यद्यपि जागीरें और जमींदारियों समाप्त हो गई हैं, किंतु उनके स्थान पर बड़े-बड़े कुलक-कृषक और उनकी सत्ता ग्रामीण जीवन पर आज भी पूरी तरह हावी है । आजादी के इन चार दशकों में हमारे गाँवों में बड़े परिवर्तन हुए हैं । गाँव और नगर की खाई में भी कमी आई है; पर छोटे किसानों की स्थिति खेतिहर मजदूरों जैसी ही है । वे शक्-संपन्न जमींदारों के दास बनकर जी रहे हैं । सच पूछा जाए तो शोषण और दमन की चक्की में पिसते हमारे करोड़ों गरीब किसानों की स्थिति बँधुआ मजदूरों से बेहतर नहीं है । और उन्हीं के खून-पसीने के गारे-ईंटों से हो रहा है नगरों-महानगरों का निर्माण । कुछ साहित्यकारों ने दूर-दराज के देहातों से वास्तविक पात्रों को चुनकर ग्रामीण जीवन पर लेखनी उठाई है । इन रचनाओं से स्पष्ट है कि हमारा ग्रामवासी शताब्दियों पुरानी अपनी समस्याओं से आज भी उसी तरह जूझ रहा है । यहाँ ऐसी ही कुछ कहानियों को प्रस्तुत किया जा रहा है जो ग्राम्य जीवन की समस्याओं और संघर्षों को व्यापक फलक पर चित्रित कर पाने में समर्थ हैं । आप देखेंगे कि ये मर्मस्पर्शी कहानियाँ हमें बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर देती हैं ।
There are no comments on this title.